संजय तिवारी
Sengol: भारत की संसद में सेंगोल की स्थापना कोई सामान्य घटना नहीं है। स्वाधीन भारत की स्वदेशी संसद के उद्घाटन के साथ ही सनातन के शिखर पुरुष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को वास्तव में भारत की सनातन परंपरा में इतिहास रच दिया है। 28 मई का दिन केवल नए संसद भवन के लिए ही नहीं बल्कि हजारों वर्ष पुरानी सनातन दंड प्रणाली और राजानुशासन के लिए भी याद किया जाएगा। जिस सनातन विधि विधान से यह अनुष्ठान संपन्न हुआ है वह अद्भुत है। इससे पहले जान लेते हैं कि सेंगोल है क्या। सेंगोल एक स्वर्ण परत वाला राजदण्ड है जिसे 28 मई, 2023 को भारत के नए संसद भवन में स्थापित किया गया है। इसका इतिहास चोल साम्राज्य से जुड़ा है। सेंगोल जिसे हस्तान्तरित किया जाता है, उससे न्यायपूर्ण शासन की अपेक्षा की जाती है।
ऐसा दावा है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात तत्कालीन वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने भारत गणराज्य के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को इसे सौंप दिया था। बाद में इसे इलाहाबाद संग्रहालय में रख दिया गया था। सेंगोल सोने और चांदी से बना है। ‘सेंगोल’ तमिल शब्द ‘सेम्मई’ (नीतिपरायणता) व ‘कोल’ (छड़ी) से मिलकर बना है। ‘सेंगोल’ शब्द संस्कृत के ‘संकु’ (शंख) से भी आया हो सकता है। सनातन धर्म में शंख को बहुत ही पवित्र माना जाता है। मंदिरों और घरों में आरती के समय शंख का प्रयोग आज भी किया जाता है। तमिलनाडु के तंजावुर में स्थित तमिल विश्वविद्यालय में पुरातत्त्व के प्रोफेसर एस. राजावेलु के अनुसार तमिल में सेंगोल का अर्थ ‘न्याय’ है। तमिल राजाओं के पास ये सेंगोल होते थे जिसे अच्छे शासन का प्रतीक माना जाता था। शिलप्पदिकारम् और मणिमेखलै, दो महाकाव्य हैं जिनमें सेंगोल के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। विश्वप्रसिद्ध तिरुक्कुरल में भी सेंगोल का उल्लेख है।
सेंगोल सोने की परत चढ़ा हुआ राजदंड है, जिसकी लंबाई लगभग 5 फीट (1.5 मीटर) है। इसका मुख्य हिस्सा चांदी से बना है। सेन्गोल को बनाने में 800 ग्राम (1.8 पौंड) सोने का इस्तेमाल किया गया था। इसे जटिल डिजाइनों से सजाया गया है और शीर्ष पर नंदी की नक्काशी की गई है। नंदी हिंदू धर्म में एक पवित्र पशु और शिव का वाहन है। इसे धर्म के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, जिसे पुराणों में एक बैल के रूप में व्यक्त किया गया है। नंदी की प्रतिमा इसका शैव परंपरा से जुड़ाव दर्शाती है। हिंदू व शैव परंपरा में नंदी समर्पण का प्रतीक है। यह समर्पण राजा और प्रजा दोनों के राज्य के प्रति समर्पित होने का वचन है। दूसरा, शिव मंदिरों में नंदी हमेशा शिव के सामने स्थिर मुद्रा में बैठे दिखते हैं। हिंदू मिथकों में ब्रह्मांड की परिकल्पना शिवलिंग से की जाती रही है। इस तरह नंदी की स्थिरता शासन के प्रति अडिग होने का प्रतीक है।
इसके अतिरिक्त नंदी के नीचे वाले भाग में देवी लक्ष्मी व उनके आस-पास हरियाली के तौर पर फूल-पत्तियां, बेल-बूटे उकेरे गए हैं, जो कि राज्य की संपन्नता को दर्शाती हैं। प्राचीन काल में भारत में जब राजा का राज्याभिषेक होता था, तो विधिपूर्वक राज्याभिषेक हो जाने के बाद राजा राजदण्ड लेकर राजसिंहासन पर बैठता था। राजसिंहासन पर बैठने के बाद वह कहता था- अब मैं राजा बन गया हूँ ‘अदण्ड्योऽस्मि, अदण्ड्योस्मि, अदण्ड्योऽमैं अदण्ड्य हूँ। मं( अदण्ड्य हूँ, अर्थात मुझे कोई दण्ड नहीं दे सकता। तो पुरानी विधि ऐसी थी कि उनके पास एक संन्यासी खड़ा रहता था, लँगोटी पहने हुए। उसके हाथ में एक छोटा, पतला सा पलाश का डण्डा रहता था। वह उससे राजा पर तीन बार प्रहार करते हुए उसे कहता था कि ‘राजा! यह ‘अदण्ड्योऽस्मि अदण्ड्योऽस्मि’ गलत है। ‘दण्ड्योऽसि दण्ड्योऽसि दण्ड्योऽसि’ अर्थात तुझे भी दण्डित किया जा सकता है।
चोल काल के दौरान ऐसे ही राजदंड का प्रयोग सत्ता हस्तान्तरण को दर्शाने के लिए किया जाता था। उस समय पुराना राजा नए राजा को इसे सौंपता था।राजदंड सौंपने के दौरान 7वीं शताब्दी के तमिल संत संबंध स्वामी द्वारा रचित एक विशेष गीत का गायन भी किया जाता था। कुछ इतिहासकार मौर्य, गुप्त वंश और विजयनगर साम्राज्य में भी सेंगोल को प्रयोग किए जाने की बात कहते हैं। ऐसा कहा जाता है कि वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने पंडित जवाहरलाल नेहरू से एक सवाल किया था, “ब्रिटिश से भारतीय हाथों में सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में किस समारोह का पालन किया जाना चाहिए?” इस प्रश्न ने नेहरू को वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी सी. राजगोपालाचारी (राजाजी) से परामर्श करने के लिए प्रेरित किया। राजाजी ने चोल कालीन समारोह का प्रस्ताव दिया जहां एक राजा से दूसरे राजा को सत्ता का हस्तांतरण उच्च पुरोहितों की उपस्थिति में पवित्रता और आशीर्वाद के साथ पूरा किया जाता था। राजाजी ने तमिलनाडु के तंजौर जिले में शैव संप्रदाय के धार्मिक मठ- तिरुवावटुतुरै आतीनम् से संपर्क किया। तिरुवावटुतुरै आतीनम् 500 वर्ष से अधिक पुराना है और पूरे तमिलनाडु में 50 मठों को संचालित करता है। अधीनम के नेता ने तुरंत पांच फीट लंबाई के ‘सेंगोल’ तो तैयार करने के लिए चेन्नई में सुनार वुम्मिदी बंगारू चेट्टी को नियुक्त किया।
वुम्मिदी बंगारू चेट्टी ने सैंगोल तैयार करके अधीनम के प्रतिनिधि को दे दिया। अधीनम के नेता ने वह सैंगोल पहले लॉर्ड माउंटबेटन को दे दिया। फिर उनसे वापस लेकर 15 अगस्त की तारीख 1947 के शुरू होने से ठीक 15 मिनट पहले स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को दे दिया था लेकिन नेहरू ने इसे प्रयाग के संग्रहालय में रखवा दिया था। आज वर्तमान भारत के प्रधानमंत्री, सनातन के महायोद्धा नरेंद्र मोदी ने उसे नए संसद भवन में लोकसभा के अध्यक्ष के आसन के ठीक निकट स्थापित कर दिया। इससे पूर्व कल की भी थोड़ी चर्चा कर लेना जरूरी है। अद्भुत दृश्य था। शरीर पर केसरिया वस्त्र, माथे पर त्रिपुंड चंदन और गले में शैव परंपरा से जुड़ी मालाएं। शनिवार को पीएम आवास में जब इस वेशभूषा और सांस्कृतिक परंपरा की थाती समेटे कुछ लोगों का आगमन हुआ तो समय का वह दौर, उस पल का उदाहरण बन गया जब सत्ता का संगम संस्कृति के साथ होता है। यह विशेष समय था तमिलनाडु के आधीनम आचार्यों और महंतों से भेंट का।
इस अवसर पर भावुक होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि आज मेरे निवास स्थान पर आप सभी के चरण पड़े हैं, ये मेरे लिए सौभाग्य का विषय है। मुझे इस बात की भी बहुत खुशी है कि कल नए संसद भवन के लोकार्पण के समय आप सभी वहां आकर आशीर्वाद देने वाले हैं। आज वही हुआ। रविवार सुबह सनातन विधि-विधान के साथ सेंगोल को संसद के नए भवन में स्थापित किया गया। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में तमिलनाडु के सदियों पुराने मठ के आधीनम महंतों का आगमन उस परंपरा को फिर से सत्ता का खास अंग बनाने के लिए हुआ जिसका लेखा-जोखा हमारी प्राचीन शासन पद्धतियों में दर्ज रहा है और जो इस राष्ट्र की विरासत रही है। सेंगोल प्राचीन काल से राजदंड के तौर पर जाना जाता रहा है। यह राजदंड सिर्फ सत्ता का प्रतीक नहीं, बल्कि राजा के सामने हमेशा न्यायशील बने रहने और प्रजा के लिए राज्य के प्रति समर्पित रहने के वचन का स्थिर प्रतीक भी रहा है। भारत में यह सनातन की स्थापना का स्वर्णिम अध्याय भी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(यह लेखक के निजी विचार हैं)