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Lack of culture in the changing society:बदलते समाज में संस्कार का अभाव

शैलेंद्र कुमार यादव 

Lack of culture in the changing society: आज के दौर में बच्चों को कुछ दो या न दो, लेकिन अच्छे संस्कार जरूर दो ताकि आने वाले समय में हमारी संस्कृति के साथ-साथ हमारा सम्मान भी बच सकें। इस समय के चक्र में बच्चों में अपने मां-बाप के प्रति न तो प्रेम ही बचा है और न सम्मान। एक समय वह भी था, जब हम लोग स्कूल निकलने के पहले अपने दादा-दादी और परिवार के अन्य बड़े लोगों के पैर छूकर, आशीर्वाद लेकर ही निकलते थे। ऊपर से मां का हमेशा ही ध्यान रहता था की मेरा बेटा गलत संगति में न चला जाये। जो मां-बाप अपने बच्चों के लिए अपनी खुशियों का बलिदान करके उनको पढ़ाने लिखाने के साथ-साथ उनकी छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखते हैं, उनकी सारी जरूरतों को पूरा करते हैं, बाद में बड़े होने पर वही औलाद उनको बोझ समझने लगती हैं।

कुछ लोग तो ऐसे भी हैं जो शराब पीकर अपने मां-बाप से गाली-गलौज करते हैं। यहां तक कि उनको मरते-पीटते भी हैं। हमारे समाज ने कभी ऐसी परिकल्पना नहीं की थी, लेकिन वक्त के साथ समाज ही बदल रहा है, आज के समय में ऐसा लगता है कि लोग अपने मां बाप से ऊब गए हैं। उनका ख्याल रखना तो दूर की बात है उनसे छुटकारा पाने के तरीके खोजते हैं। मां-बाप भी उनकी रोज-रोज की प्रताड़ना से तंग आ जाते है, लेकिन अपनी औलाद को नहीं छोड़ना चाहते, क्योंकि पूरा जीवन तो उन्होंने अपने बच्चों पर लगाया है। ऊधर बेटा और बहू ने इंटरनेट जो आज संचार का सबसे बड़ा माध्यम है के सहारे अपने बूढ़े मां-बाप से छुटकारा पाने का तरीका खोज निकाला वृद्धा आश्रम। अगले दिन सुबह बूढ़े मां-बाप के पुराने झोले में कपड़े पैक करके उनको गाड़ी में बैठाकर निकले, तो छोटे बच्चे ने पूछा, पापा दादा-दादी को कहा लेकर जा रहे हो। जवाब मिला खुशियों के घर वृद्ध मां बाप की आंखों में आंसू निकलने लगे। कुछ घंटों में ही अपना पीछा छुड़ा कर लौट आए।

नए घर में छोड़ आए, ये तो फिर भी ठीक है। यहां कम से कम उनके जैसे लोग तो हैं, कुछ लोग तो अपने मां-बाप को सुनसान या किसी अनजान जगह पर छोड़ आते हैं। उनको जिन्होंने हमेशा अपनी औलाद के लिए खुशियां ही सोंची थी। समय इतना बदल गया है कि भाई-भाई में न तो प्यार बचा है और न भरोसा। लालच, झूठ, झूठी शान और यूरोपियन सभ्यता ने हमारी पुरानी संस्कृति को खोखला बना दिया है। आज जरूरत है हमें उसको रिपेयर करने की, आज हमारे पास एक ही माध्यम है संस्कार। जो हम अपने बच्चों में डाले, शिक्षा संस्कार की जननी है बिना उसके कुछ संभव नहीं है। आने वाली पीढ़ी को साक्षर बनाए, ताकि ये महत्मा बुद्ध और अहिंसावादी राष्ट्रपिता गांधी की विचारधारा को जिंदा रखा जाए।

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