Pitru Paksha: प्रत्येक आकार का अंत अनिवार्य है। मृत को मृतिका में मिल जाने की अनिवार्यता है। यह विशुद्ध विज्ञान है। ऊर्जा विहीन देह को मृत कहा जा रहा, क्योंकि इस मृत को मृतिका में मिलना ही है। जीवन के सभी 16 संस्कारों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण 16वां संस्कार ही है। इसे सामान्य जन अंत्येष्टि कहते हैं। अन्त्येष्टि को अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहा जाता है। आत्मा में अग्नि का आधान करना ही अग्नि परिग्रह है। शास्त्रों की मान्यता है कि मृत शरीर की विधिवत् क्रिया करने से जीव की अतृप्त वासनायें शान्त हो जाती हैं। शास्त्रों में बहुत ही सहज ढंग से इहलोक और परलोक की परिकल्पना की गयी है। जब तक जीव शरीर धारण कर इहलोक में निवास करता है, तो वह विभिन्न कर्मों से बंधा रहता है। प्राण निकल जाने पर वह इस लोक को छोड़ देता है। उसके बाद की परिकल्पना में विभिन्न लोकों के अलावा मोक्ष या निर्वाण है।अन्त्येष्टि ऐहिक जीवन का अन्तिम अध्याय है। आत्मा की अमरता एवं लोक परलोक का आस्थावान जीवन इस लोक की अपेक्षा पारलौकिक कल्याण की सतत कामना करता है। मरणोत्तर संस्कार से ही पारलौकिक विजय प्राप्त होती है –
जात संस्कारेणेमं लोकमभिजयति
मृतसंस्कारेणामुं लोकम्॥
विधि-विधान, आतुरकालिक दान, वैतरणीदान, मृत्युकाल में भू शयन व्यवस्था मृत्युकालिक स्नान, मरणोत्तर स्नान, पिण्डदान, (मलिन षोडशी) के 6 पिण्ड दशगात्रायावत् तिलाञ्जलि, घटस्थापन दीपदान, दशाह के दिन मलिन षोडशी के शेष पिण्डदान एकादशाह के षोडश श्राद्ध, विष्णुपूजन शैय़्यादान आदि। सपिण्डीकरण, शय्यादान एवं लोक व्यवस्था के अनुसार उत्तर कर्म आयोजित कराने चाहिए। इन सभी कर्मों के लिए प्रान्त देशकाल के अनुसार पद्धतियां उपलब्ध हैं तदनुसार उन कर्मों का आयोजन किया जाना चाहिए।
पितृ पक्ष अर्थात महालय पक्ष का महत्त्व
वृश्चिक राशि में प्रवेश करने से पूर्व, जब सूर्य कन्या एवं तुला राशि में होता है, वह काल महालय कहलाता है। इस कालावधि में पितर यम लोक से आकर अपने परिवार के सदस्यों के घर में वास करते हैं। इसीलिए शक संवत अनुसार भाद्र पद कृष्ण प्रतिपदा से भाद्रपद अमावास्या तक के एवं विक्रम संवत अनुसार आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से आश्विन अमावस्या तक के पंद्रह दिन की कालावधि में पितृ तर्पण एवं तिथि के दिन पितरों का श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने से पितृव्रत यथा सांग पूरा होता है। इसीलिए यह पक्ष पितरों को प्रिय है। इस पक्ष में पितरों का श्राद्ध करने से वे वर्ष भर तृप्त रहते हैं। जो लोग पितृ पक्ष में कुछ कारण वश महालय श्राद्ध नहीं कर पाते, उन्हें पितृ पक्ष के उपरांत सूर्य के वृश्चिक राशि में प्रवेश करने से पहले तो महालय श्राद्ध करना ही चाहिए।
श्राद्धं कन्यागते भानौ यो न कुर्याद् गृहाश्रमी।
धनं पुत्राः कुततस्य पितृकोपाग्निपीडनात्॥
यावच्च कन्यातुलयोः क्रमादास्ते दिवाकरः।
शून्यं प्रेतपुरं तावद् यावद् वृश्चिकदर्शनम्॥
(महाभारत)
कन्या राशि में सूर्य के रहते, जो गृहस्थाश्रमी श्राद्ध नहीं करता, उसे पितरों की कोपाग्नि के कारण धन, पुत्र इत्यादि की प्राप्ति कैसे होगी? उसी प्रकार सूर्य जब तक कन्या एवं तुला राशियों से वृश्चिक राशि में प्रवेश नहीं करता, तब तक पितृलोक रिक्त रहता है। पितृलोक के रिक्त रहने का अर्थ है, उस काल में कुल के सर्व पितर आशीर्वाद देने के लिए अपने वंशजों के समीप आते हैं। वंशजों द्वारा श्राद्ध न किए जाने पर शाप देकर चले जाते हैं। अतः इस काल में श्राद्ध करना महत्त्वपूर्ण है।
पितृ पक्ष अर्थात महालय में श्राद्ध के लिए आने वाले पितर गण
(2-1). पितृ त्रय :- पिता, दादा, पर दादा, (2-2). मातृ त्रय :- माता, दादी, पर दादी, (2-3). सापत्न माता अर्थात सौतेली मां, (2-4). माता मह त्रय :- मां के पिता, नाना एवं परनाना, (2-5). माता मही त्रय :- मां की माताजी, नानी एवं पर नानी, (2-6). भार्या, पुत्र, पुत्रियां, चाचा, मामा, भाई, बुआ, मौसियां बहनें, ससुर, अन्य आप्तजन, (2-7). श्राद्ध कर्ता किसी के शिष्य हों, तो गुरु, (2-8). श्राद्धकर्ता किसी के गुरु हों, तो शिष्य। यह स्पष्ट है कि मनुष्य मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म लेकर पुनः-पुनः उसी परिवार में तब तक आता है जब तक कि उसके उस परिवार सम्बन्धी संस्कार उपस्थित हैं। मृत्यु के उपरांत भी जीव के सुख एवं उन्नति से संबंधित इतना गहन अभ्यास केवल हिंदू धर्म ने ही किया है।
भरणी श्राद्ध
गया जाकर श्राद्ध करने पर जो फल मिलता है, वही फल पितृ पक्ष के भरणी नक्षत्र पर करने से मिलता है। शास्त्रानुसार भरणी श्राद्ध वर्ष श्राद्ध के पश्चात् करना चाहिए। वर्ष श्राद्ध से पूर्व सपिंडीकरण (-सपिंडी) श्राद्ध किया जाता है। तत्पश्चात् भरणी श्राद्ध करने से मृतात्मा को प्रेत योनि से छुड़ाने में सहायता मिलती है। यह श्राद्ध प्रत्येक पितृ पक्ष में करना चाहिए। पूर्वजों का भूत, प्रेत-पिशाच योनि में होना अहितकर है। कालानुरूप प्रचलित पद्धतिनुसार व्यक्ति की मृत्यु होनेके पश्चात् 12 वें दिन ही सपिंडीकरण श्राद्ध किया जाता है। इसलिए, कुछ शास्त्रज्ञों के मतानुसार व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् उस वर्ष पड़ने वाले पितृ पक्ष में ही भरणी श्राद्ध कर सकते हैं।
सर्व पित्री अमावस्या
यह पितृ पक्ष की अमावस्या का नाम है। इस तिथि पर कुल के सर्व पितरों को उद्देशित कर श्राद्ध करते हैं। वर्ष भर में सदैव एवं पितृ पक्ष की अन्य तिथियों पर श्राद्ध करना संभव न हो, तब भी इस तिथि पर सबके लिए श्राद्ध करना अत्यंत आवश्यक है; क्योंकि पितृ पक्ष की यह अंतिम तिथि है। शास्त्र में बताया गया है कि, श्राद्ध के लिए अमावस्या की तिथि अधिक उचित है, जबकि पितृ पक्ष की अमावस्या सर्वाधिक उचित तिथि है। इस दिन प्रायः सभी घरों में कम से कम एक ब्राह्मण को तो भोजन का निमंत्रण दिया ही जाता है। उस दिन मछुआरे, ठाकुर, बुनकर, कुनबी इत्यादि जातियों में पितरोंके नामसे भात का अथवा आटे का पिंड दान दिया जाता है और अपनी ही जाति के कुछ लोगों को भोजन कराया जाता है। इन में इस दिन ब्राह्मणों को सीधा (-अन्न सामग्री) देने की भी परंपरा प्रचलित है।
पितृ पक्ष में भगवान् दत्तात्रेय का नाम जपने का महत्त्व :- पितृ पक्ष में श्री गुरु देव दत्त का नाम जप अधिकाधिक करने से पितरों को गति प्राप्त होने में सहायता मिलती है। परिवार में जिस व्यक्ति के पिता अथवा माता की मृत्यु हो गई हो, उस श्राद्धकर्ता को उनके लिए उनके देहांत के दिन से आगे एक वर्ष तक महालय श्राद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि, उनके लिए वर्ष भर में श्राद्ध कर्म किया ही जाता है। श्राद्ध कर्ता पुत्र के अतिरिक्त अन्यों को, श्राद्ध कर्ता के चचेरे भाई एवं जिन्हें सूतक लगता है, ऐसे लोगों को अपने पिता इत्यादि के लिए प्रति वर्ष की भांति महालय श्राद्ध करना चाहिए। किंतु, सूतक के दिनों में महालय पक्ष पड़ने पर श्राद्ध न करें। सूतक समाप्त होने पर आने वाली अमावस्या पर श्राद्ध अवश्य करें।
महालय श्राद्ध के समय प्रत्येक पितर के लिए एक ब्राह्मण होना चाहिए। ब्राह्मण को पितृ स्थान पर बिठाकर देवस्थान पर शालिग्राम अथवा बाल कृष्ण की मूर्ति-प्रतिमा-तस्वीर रखें। देवस्थान पर बाल कृष्ण एवं पितृ स्थान पर दर्भ रखें अथवा दोनों ही स्थानों पर दर्भ रखें । इसे चट अथवा दर्भबटु (-कुश से बनी कूंची) कहते हैं। चट रखकर किए गए श्राद्ध को चट श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में दक्षिणा भी देते हैं।
श्राद्ध विधि-पितृ ऋण से मुक्त कराने की विधि :
(1).अप सव्य करना :- देश काल का उच्चारण कर अप सव्य करें, अर्थात् जनेऊ बाएं कंधे से दाएं कंधे पर लें।
(2). श्राद्ध संकल्प करना :- श्राद्ध के लिए उचित पितरों की षष्ठी विभक्ति का विचार कर (-उनका उल्लेख करते समय, षष्ठी-विभक्ति का प्रयोग करना, प्रत्यय लगाना, उदा. रमेशस्य), श्राद्ध कर्ता निम्न संकल्प करे :–
अमुक श्राद्धं सदैवं सपिण्डं पार्वणविधीना एकोद्दिष्टेन वा अन्नेन वा आमेन वा हिरण्येन सद्यः करिष्ये।
(3). यवोदक (-जौ) एवं तिलोदक बनाएं।
(4). प्रायश्चित के लिए पुरुष सूक्त, वैश्व देव सूक्त इत्यादि सूक्त बोलें।
(5). ब्राह्मणों की परिक्रमा करें एवं उन्हें नमस्कार करें। तदुपरांत श्राद्धकर्ता ब्राह्मणों से प्रार्थना करें कि -‘हम सब यह कर्म सावधानी से, शांत चित्त, दक्ष एवं ब्रह्मचारी रहकर करेंगे।’
(6). 21 क्षण देना (-आमंत्रण देना) :- श्राद्ध कर्म के समय देवता एवं पितरों के लिए एक-एक दर्भ (-कुश) अर्पित कर आमंत्रित करें।
(7). देव स्थान पर पूर्व की ओर एवं पितृ स्थान पर उत्तर की ओर मुख कर ब्राह्मणों को बैठाएं। ब्राह्मणों को आसन के लिए दर्भ दें, देवताओं को सीधे दर्भ अर्पित करें एवं पितरों को अग्र से मोड़ कर दें।
(8). आवाहन, अर्घ्य, संकल्प, पिंडदान, पिंडाभ्यंजन (-पिंडों को दर्भ से घी लगाना), अन्न दान, अक्षयोदक, आसन तथा पाद्यके उपचारों में पितरों के नाम-गोत्र का उच्चारण करें। गोत्र ज्ञात न हो तो कश्यप गोत्र का उच्चारण करें; क्योंकि श्रुति बताती है कि ‘समस्त प्रजा कश्यप से ही उत्पन्न हुई हैं’। पितरों के नाम के अंत में ‘शर्मन्’ उच्चारण करें। स्त्रियों के नाम के अंत में ‘दां’ उपपद लगाएं।
(9). ‘उदीरतामवर’ मंत्र से सर्वत्र तिल बिखेरें तथा गायत्री मंत्र से अन्न प्रोक्षण करें (-अन्न पर पानी छिड़कें)।
(10). देवता पूजन में भूमि पर नित्य दाहिना घुटना टिकाएं। पितरों की पूजा में भूमि पर बायां घुटना टिकाएं।
(11). देव कर्म प्रदक्षिण एवं पितृ कर्म अप्रदक्षिण करें। देवताओं को उपचार समर्पित करते समय ‘स्वाहा नमः’ एवं पितरों को उपचार समर्पित करते समय ‘स्वधा नमः’ कहें।
(12). देव-ब्राह्मणके सामने यवोदक से दक्षिणावर्त अर्थात् घड़ी की दिशा में चौकोर मंडल व पितर-ब्राह्मण के सामने तिलोदक से घड़ी की विपरीत दिशा में गोलाकार मंडल बनाकर, उनपर भोजन पात्र रखें। उसी प्रकार कुल देवता एवं गोग्रास के (गाय के लिए नैवेद्य) लिए पूजा घर के सामने पानी का घड़ी की दिशा में मंडल बनाकर उन पर भोजन पात्र रखें। पितृ स्थान पर बैठे ब्राह्मणों के भोजन पात्र के चारों ओर भस्म का उलटा (घड़ी की विपरीत दिशा में) वर्तुल बनाएं। देव स्थान पर बैठे ब्राह्मणों के भोजन पात्रों के चारों ओर नित्य पद्धति से (घड़ी की दिशा में) भस्म की रंगोली बनाएं।
(13). पितर एवं देवताओं को विधिवत् संबोधित कर अन्न-निवेदन करें।
(14). पितरों को संबोधित कर भूमि पर अग्रयुक्त एक बित्ता लंबे 100 दर्भ फैला कर उस पर पिंड दान, तदनंतर पिंडों की पूजा करें। तत्पश्चात् देव ब्राह्मण के लिए परोसी थाली के सामने दर्भ पर थोड़े चावल (-विकिर), पितर ब्राह्मण के लिए परोसी थाली के सामने दर्भ पर थोड़े चावल (-प्रकिर) रखकर उन पर क्रमानुसार यवोदक, तिलोदक दें। इसके पास में भिन्न दर्भ पर एक पिंड रख कर उस पर तिलोदक दें। उसे ‘उच्छिष्ट पिंड’ कहते हैं। इन सर्व पिंडों को जलाशय में विसर्जित करें अथवा गाय को दें।
(15). महालय श्राद्ध के समय सबको संबोधित कर पिंडदान होने के पश्चात् चार दिशाओं को धर्म पिंड दें। सृष्टि की निर्मिति करने वाले ब्रह्म देव से लेकर जिन्होंने हमारे माता-पिता के कुल में जन्म लिया है; साथ ही गुरु, आप्त, हमारे इस जन्म में सेवक, दास, दासी, मित्र, घर के पालतू प्राणी, लगाए गए वृक्ष, हम पर उप कृत (हमारे प्रति कृतज्ञ) व्यक्ति, जिनका पिंड दान करने के लिए कोई न हो तथा अन्य ज्ञात एवं अज्ञात व्यक्ति को पिंड दान करें।
(16). पिंड दान के उपरांत ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर उनसे आशीर्वाद के अक्षत लें। स्वधा वाचन कर सर्व कर्म ईश्वरार्पण करें।
यदि घर में मंगलकार्य हुआ हो, तो एक वर्ष तक श्राद्ध में पिंड दान निषिद्ध है। कर्ता (पुत्र का विवाह, यज्ञोपवीत, चौल संस्कार करने वाला) विवाहोपरांत एक वर्ष, व्रत बंध के उपरांत छह मास, चौल संस्कार के उपरांत तीन मास क पिंड दान, मृत्तिका स्नान एवं तिल तर्पण न करे। इसके लिए ये अपवाद है- विवाह होने के पश्चात् भी, तीर्थ स्थल में, माता के पितरों के सांवत्सरिक श्राद्ध में, प्रेत श्राद्ध में, पिता के और्ध्वदेहिक कर्मों में एवं महालय श्राद्धमें सर्वदा पिंडदान किया जा सकता है।
भात में अर्थात पके हुए चावल में अग्नौ करण अर्थात अग्नि में आहुति देने हेतु लिए गए भात का शेष भाग, तिलोदक, काले तिल, दही, मधु एवं घी, ये मुख्य घटक मिलाएं। शास्त्र में सर्व प्रकार के श्राद्धीय अन्न पदार्थों के अल्प भाग से पिंड बनाने का विधान है। इसलिए पिंड बनाने के मिश्रण में मुख्य घटकों के साथ ही बडे एवं खीर इत्यादि श्राद्धीय भोजनके पदार्थ भी डालने चाहिए। पिंड बनाने के इस मिश्रण को मसलकर साधारणतः चार बड़े पिंड एवं अन्य आवश्यक छोटे पक्के पिंड बनायें। पितृ त्रय के लिए थोड़े बड़े आकार के पिंड बनाने की पद्धति निम्न है-
(1). श्राद्ध में भात अर्थात पके हुए चावल के पिंड बनाना:- चावल सर्व समा वेशक है। चावल पकाने से उसमें रजो गुण बढ़ता है। इस प्रक्रिया में चावल में पृथ्वी तत्त्व का प्रमाण घटकर आप तत्त्वका प्रमाण बढ़ता है। आप तत्त्व के कारण भात से प्रक्षेपित सूक्ष्म-वायु में आर्द्रता अधिक होती है। जब श्राद्ध में भात का गोला बनाकर उस पर संस्कार किए जाते हैं, तब उसका रूपांतर पिंड में होता है। संक्षेप में, भात के सर्व ओर उत्पन्न होने वाले आर्द्रता दर्शक प्रभावलय में पितरों की लिंग देहों की रज-तमात्मक तरंगों का संस्करण होता है। इस रजो गुणी पिंड की वातावरण कक्षा में पितरों की लिंग देहों के लिए प्रवेश करना सरल होता है। अतः मंत्रोच्चारण से संचारित वायुमंडल द्वारा लिंग देह को सूक्ष्म बल प्राप्त होता है तथा उनके लिए आगे का मार्ग प्रशस्त एवं सुगम होता है।
(2). पिंड के लिए सर्व प्रकारके अन्न पदार्थों का अल्प भाग लेना: भात से बनाया पिंड लिंग देह का प्रतिनिधित्व करता है। जब लिंग देह प्रत्यक्षतः व्यक्ति की स्थूल देह से विलग होती है, तब वह मन के विविध संस्कारों का आवरण लेकर निकलती है। आसक्ति दर्शक संस्कारों में अन्न संबंधी संस्कार सर्वाधिक होते हैं। प्रत्येक जीव की अन्न विषयक रुचि-अरुचि भिन्न होती है। इन सभी रुचियों के सूचक जैसे मीठा, चटपटा, नमकीन इत्यादि स्वादिष्ट पदार्थों से युक्त अन्न का अल्प अंश लेकर उससे पिंड बनाकर श्राद्ध स्थल पर रखा जाता है। श्राद्ध में इन विशिष्ट अन्न पदार्थों की सूक्ष्म-वायु कार्यरत होती है एवं श्राद्ध स्थल पर आई लिंग देह को इस सूक्ष्म-वायु के माध्यम से विशिष्ट अन्न के हविर्भाग अर्थात पितरों को अर्पित अन्न के अंश की प्राप्ति होती है। इससे लिंग देह संतुष्ट होती हैं। विशिष्ट पदार्थों का अंश प्राप्त होने से विशिष्ट पदार्थों की लिंग देह की आसक्ति अंशतः क्षीण होती है। जिससे लिंग देह के भूलोक में अटकने की आशंका घटती है।
(3). मधु युक्त पिंड देना: मधु में पृथ्वी एवं आप तत्त्वोंसे संबंधित पितर तरंगों को अपनी मिठास से प्रसन्न करने एवं उन्हें पिंड में ही बद्ध करने की क्षमता होती है। अतः मधु युक्त पिंड देने से वह दीर्घ काल तक पितर-तरंगों से संचारित रहता है। दर्भ का शुद्धिकरण किया जाता है। प्रत्येक पिंड रखते हुए कर्ता कहता है अमुक गोत्रके वसु स्वरूप अथया रुद्र स्वरूप अथवा आदित्य स्वरूप के अपने अमुक नाम के परिजन के लिए मैं पिंड रखता हूं। उसके उपरांत पिंड पूजन किया जाता है।
(3-1). पिंड स्वरूपी पितरों के लिए काजल, ऊन का धागा, पुष्प, तुलसी, भृंगराज, धूप, दीप द्वारा उपचार किए जाते हैं।
(3-2). पिंडरूपी पितरों को नैवेद्य अर्पित किया जाता है।
(3-3). पीने के लिए तथा हाथ-मुंह धोने के लिए जल अर्पित किया जाता है। मुख शुद्धि हेतु पान अर्पित किया जाता है।
(3-4). उसके पश्चात पितर-ब्राह्मणों को तिलोदक एवं देव-ब्राह्मणों को यवोदक अर्थात जौ युक्त जल देकर पिंड पर जल छोड़ा जाता है। जिन पितरों की मृत्यु अग्नि में जलने से अथवा कोख में जन्म से पहले ही हो गई है, उनके लिए बनाए गए विशेष पिंडों पर तिलोदक चढ़ाया जाता है।
(3-5). उसके पश्चात परिवार के अन्य सदस्य पिंडों को नमस्कार करते हैं।
(4). श्राद्धकर्ता द्वारा दर्भपर पिंड रखने तथा उसका पूजन करना: श्राद्ध विधि में मंत्रों का उच्चारण करते समय पुरोहित में शक्ति के वलय की जागृति होती है। पुरोहित के मुख से वातावरण में शक्ति की तरंगों का प्रक्षेपण होता है। श्राद्ध विधि भाव पूर्ण करने वाले पूजक के अनाहत चक्र के स्थान पर भाव के वलय जागृत होते हैं। ईश्वर से प्रक्षेपित शक्ति का प्रवाह पिंडदान हेतु रखे दर्भ में आकृष्ट होता है। दर्भ एवं उसपर रखे जाने वाले पिंड में शक्ति के वलय जागृत होते हैं। इस वलय से वातावरण में शक्ति के प्रवाहों का प्रक्षेपण होता है। शक्ति का प्रवाह पूजक की ओर प्रक्षेपित होता है।
(5). पिंड पूजन की सूक्ष्म गति: पुरोहित द्वारा श्राद्धसे संबंधित मंत्र पठन के कारण भुव लोक से एक काला-सा प्रवाह पिंड की ओर आकृष्ट होता है। लिंग देह के रूप में पितर आकृष्ट होते है। आकृष्ट हुए पितरों के कारण दर्भ पर रखे पिंड के सर्व ओर काला तमोगुणी वलय उत्पन्न होता है। श्राद्ध कर्ता पिंड पूजन कर प्रार्थना करता है कि उसके परिवार पर पितरों की कृपा दृष्टि बनी रहे। पितरों को अन्न एवं शक्ति प्राप्त हो प्रार्थना करने से श्राद्ध कर्ता की ओर चैतन्य तथा शक्ति के प्रवाह आकृष्ट होते है। श्राद्ध कर्ता के स्थानप र चैतन्य तथा शक्ति के वलय जागृत होते हैं। श्राद्ध कर्ता के भाव पूर्ण पिंड पूजन से पूर्वज दोष की तीव्रता घटती है। पिंड पूजन करने से अतृप्त पितर भुव लोक से पिंड की ओर सहजता से आकृष्ट होते हैं तथा उनकी इच्छाएं पूर्ण होकर उन्हें गति मिलती है। इस प्रकार से पितरों के कष्ट न्यून होते हैं। यह श्राद्ध विधि में पिंड पूजन का महत्त्व स्पष्ट होता है।