विचार

कभी आओ हमारे गाँव


रचनाकार: दीपांजली शर्मा “दीपा“

कभी आओ हमारे गाँव ,
तुम्हें हम गाँव दिखाएँगे।
बने पकवान चूल्हे पर,
तुम्हें दिल से खिलाएँगे।।

गरीबी है मगर साहब ,
हम इज़्ज़त के लिए मरते।
जो घर मेहमान आते हैं ,
उन्हें भगवान हम कहते।।

भले अनपढ़ हों हम साहब,
हमे गिनती नहीं आती!
खिलाते पेटभर रोटी,
मगर गीनी नहीं जाती!!

कहीं कच्ची है पगडंडी,
डगर पक्के भी हैं मिलते !
दिखेगी फूस की कुटिया ,
भवन पक्के भी हैं रहते ।।

हम अपने गाँव में साहब,
बड़े ख़ुशहाल रहते हैं !
होती झूमकर कजरी ,
जब झूले बाग़ में पड़ते।।

अगर पैसा कमाना हो ।
शहर तब ठीक है “दीपा“
सुकून-ओ-चैन तो साहब ,
केवल गाँव में मिलती।।

स्विमिंग पूल के बदले ,
यहाँ तालाब मिलता है।
हवा पानी यहाँ पर शुद्ध,
साहब मुफ़्त मिलता है।।

मेरे माँ के जो हाथो का,
अगर पकवान खाओगे।
मेरा दावा है व्यंजन तुम,
शहर का भूल जाओगे।।

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