विश्व पर्यावरण दिवस: सनातन पथ ही है सृष्टि की सुरक्षा का एकमात्र उपाय

उत्तर प्रदेश। आज जब दुनिया हर साल विश्व पर्यावरण दिवस मना रही है, तब भी आचार्य संजय तिवारी जैसे मनीषी इस बात पर जोर दे रहे हैं कि वास्तव में यह सृष्टि हर पल विनाश की ओर बढ़ रही है। उनका मानना है कि युद्ध और विनाश से झुलस रहे विश्व को केवल सनातन की वह शक्ति बचा सकती है, जिसे वेदों ने इस सृष्टि की सुरक्षा के लिए दिया है। यह चिंतनीय स्थिति सनातन संस्कृति में बहुत स्पष्ट रूप से उपस्थित मुक्ति और संपूर्ण शांति की व्यवस्था को उजागर करती है।
आचार्य तिवारी यजुर्वेद की एक प्रार्थना का उल्लेख करते हैं: “ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:, पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:, सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥”
यह प्रार्थना त्रिभुवन, जल, थल, गगन, अंतरिक्ष, अग्नि-पवन, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन, सकल विश्व, राष्ट्र-निर्माण, नगर, ग्राम, भवन, तथा प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण-कण में शांति की कामना करती है। आचार्य तिवारी के अनुसार, यही सनातन का उद्घोष है और सृष्टि, प्रकृति तथा संस्कृति को संतुलित रखने का एकमात्र पथ है।
कलश स्थापन: प्रकृति को नमन का प्रतीक
सनातन संस्कृति में किसी भी मांगलिक कार्य से पहले कलश स्थापन का विधान है। आचार्य तिवारी बताते हैं कि कलश वस्तुतः हमारे ब्रह्मांड का प्रतीक है। कलश के नीचे रखे जाने वाले जौ आदि धान्य पृथ्वी के, उसमें भरा जाने वाला जल, जल तत्व का, उसके समीप जलाया जाने वाला दीपक अग्नि तत्व का प्रतीक है। कलश के मुख पर पंच पल्लव तथा इसमें डाली जाने वाली औषधीय वनस्पतियां हमारे पारिस्थितिकीय तंत्र की ओर इशारा करती हैं। इस प्रकार कलश में सभी देवताओं की प्राण प्रतिष्ठा कर एक प्रकार से प्रकृति को ही नमन किया जाता है।
पंचमहाभूत और सनातन का विज्ञान
आचार्य तिवारी ने प्रकृति की सेहत के लिए उपयोगी पंचमहाभूतों पर विस्तृत प्रकाश डाला है, जो हमारे और प्रकृति के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं।
वायु: वेदों में प्राण
वेदों में वायु को प्राण कहा गया है, और हम ऑक्सीजन को प्राणवायु कहते हैं। सनातन संस्कृति में वायु शुद्धीकरण के लिए होम-यज्ञ की विधि बताई गई है, वहीं प्राणवायु के मूल स्रोत वनस्पतियों के संरक्षण पर जोर दिया गया है। विज्ञान भले ही पेड़ों में जीवन की बात आज करता है, लेकिन हमारे मनीषी आदि काल से इन्हें सजीव मानते आए हैं। वृक्षों को काटना पाप माना गया है, विशेषकर पीपल, बरगद व बेल के पेड़ को काटना महापाप कहा गया है, क्योंकि पीपल सबसे अधिक प्राणवायु उत्सर्जित करता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है, “वृक्षों में पीपल वृक्ष मैं हूँ।” इस प्रकार पीपल के वृक्ष के प्रति जन-आस्था जोड़कर इसके संरक्षण की बात कही गई है। अग्नि पुराण कहता है कि फल-फूल वाले वृक्ष को नहीं काटना चाहिए, और संतान वाले व्यक्ति को पीपल की टहनी तोड़ना भी वर्जित है। मृतक की याद में पीपल के वृक्ष रोपने की परंपरा को प्रकृति से ली गई प्राणवायु का कर्ज चुकाने का एक उपक्रम माना जाता है।
वायु के 49 स्वरूप: आचार्य तिवारी ने गोस्वामी तुलसीदास जी के श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड में वर्णित “हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास” प्रसंग का उल्लेख किया है। वे बताते हैं कि आधुनिक मौसम विज्ञान भी जिस वायु ज्ञान से अनभिज्ञ है, उसका वर्णन वेदों में मिलता है। वेदों में वायु की 7 शाखाओं का विस्तार से वर्णन है:
- प्रवह: मेघमंडलपर्यंत स्थित, बादलों को उड़ाकर ले जाती है।
- आवह: सूर्यमंडल में बंधी हुई है, सूर्यमंडल को घुमाती है।
- उद्वह: चंद्रलोक में प्रतिष्ठित है, चंद्रमंडल को घुमाती है।
- संवह: नक्षत्र मंडल में स्थित है, संपूर्ण नक्षत्र मंडल को घुमाती है।
- विवह: ग्रह मंडल में स्थित है, ग्रह चक्र को घुमाती है।
- परिवह: सप्तर्षिमंडल में स्थित है, सप्तर्षियों को भ्रमण कराती है।
- परावह: ध्रुव में आबद्ध है, ध्रुव चक्र और अन्य मंडलों को स्थापित रखती है।
इन सातों वायु के सात-सात गण हैं जो ब्रह्मलोक, इंद्रलोक, अंतरिक्ष, भूलोक की पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में विचरण करते हैं। इस प्रकार 7×7=49 मरुत होते हैं, जो देव रूप में विचरण करते रहते हैं।
जल तत्व
सनातन संस्कृति में हजारों साल पहले दशावतार में जलचर मत्स्य से विकास यात्रा की शुरुआत का उल्लेख मिलता है, जो डार्विन के सिद्धांत से बहुत पहले है। पृथ्वी के लगभग तीन-चौथाई भाग में जल है, और हमारे शरीर का 72% भाग जल है। नदियों को विशेष सम्मान दिया गया है, कुंभ पर्वों और गंगा को मां का दर्जा देकर जल की महत्ता प्रतिपादित की गई है। हिमालय के कैलाश पर्वत को भगवान शिव का वास और क्षीरसागर में विष्णु का वास मानकर हिमालय से समुद्र पर्यंत आस्था जगाकर उनके संरक्षण का सूत्र दिया गया है।
अग्नि तत्व
वैदिक साहित्य में अग्नि के 108 नाम बताए गए हैं। अग्नि ही समस्त सृष्टि की ऊर्जा का स्रोत है – प्राणियों में जठराग्नि, आकाश में विद्युत, पृथ्वी में आग और सूर्य की किरणों के रूप में। सूर्य रश्मियां वातावरण को कीटाणुमुक्त करती हैं। हवन-यज्ञों का हव्य वातावरण की शुद्धता के लिए निश्चित रूप से उपयोगी है।
आकाश तत्व
द्यौ यानी आकाश ऐसा महाभूत है, जिसमें वायु के साथ मिलकर ध्वनि की उत्पत्ति होती है। सूर्य, चंद्रमा, ग्रह-उपग्रह और ओजोन परत सब आकाश तत्व के अधीन आते हैं। औद्योगिक विकास के नाम पर ग्रीनहाउस गैसों के अंधाधुंध उत्सर्जन से ओजोन परत का क्षरण हो रहा है, जो ग्लोबल वार्मिंग के रूप में एक चुनौती बन चुका है। वैदिक साहित्य में इन पांच तत्वों के संतुलन पर जोर दिया गया था, जिसे हमने नजरअंदाज किया है।
पृथ्वी तत्व
अथर्ववेद में कहा गया है “माता भूमिः पुत्रोहं पृथिव्याः” अर्थात् भूमि मेरी माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ। पृथ्वी रत्न गर्भा है और प्रत्येक जीव के पोषण के लिए आवश्यक सब कुछ प्रदान करती है। मनुष्य की भविष्य के लिए अंधाधुंध संग्रह करने की प्रवृत्ति ने पृथ्वी के संसाधनों का अत्यधिक दोहन कर इसे प्रदूषित कर दिया है। सनातन संस्कृति में जीव हत्या निषिद्ध है और सूक्ष्म प्राणी चींटी को भी मारना महापाप माना गया है। बलि प्रथा को क्षुद्र स्वार्थों के वशीभूत होकर देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के नाम पर जन्म दिया गया, जो पर्यावरण को असंतुलित करता है।
सनातन संस्कृति में सारे पर्व, मेले, कुंभ आदि पर्यावरण को केंद्र में मानकर ही निर्धारित हैं – चाहे वह गंगा दशहरा पर गंगा मां का संरक्षण हो, हरेला पर धरती की हरियाली बढ़ाना हो, दीवाली पर गोधन का संरक्षण हो, अथवा विजयदशमी पर सांस्कृतिक व सामाजिक पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाले तत्वों का विनाश।
आचार्य तिवारी का निष्कर्ष है कि बुद्धिमानी इसी में है कि हम प्रकृति के इन पंचमहाभूतों को देवतुल्य सम्मान देकर सभी तत्वों में संतुलन स्थापित करने में सहयोगी बनें। एक के भी असंतुलित होने से पूरी सृष्टि असंतुलित होगी और “द्यौः शान्तिः…….” की प्रार्थना धरी की धरी रह जाएगी। ईश्वर को किसी ने देखा नहीं है, लेकिन जो पंचमहाभूत प्रत्यक्ष में हैं, उनकी उपेक्षा करना बुद्धिमानी नहीं है। इन पांच तत्वों के संरक्षण की उपेक्षा के बिना कोई भी उपासना जनकल्याणकारी नहीं हो सकती।