वर्षा-विलासिनी: कवि अरविंद शर्मा ‘अजनबी’ की वर्षा ऋतु पर अद्वितीय कविता, प्रेम और प्रकृति का अद्भुत संगम
सावन की फुहारों में डूबी कविता ‘वर्षा-विलासिनी’ में झलकती है स्त्री सौंदर्य, प्रेम, आत्मा और प्रकृति की गूढ़ अनुभूतियाँ

कवि- अरविंद शर्मा अजनबी
शीर्षक – वर्षा-विलासिनी
तन की चुनर भीगती जाए,
मन की चूनर डोल उठे,
बूँदें जैसे गीत रचें हों,
पायल की झनकार बहे।
घटा ओढ़कर नाची वह,
नयन बंधन तोड़े जब,
झरने सी इक चाल लिए,
वह सावन की रानी अब।।
केश जटिल से धार बहे,
दृग से उष्ण अधीर रस छलके,
अंजुरी भर जल ले मेघों ने,
जैसे मधु से तन छलके।
भीगे आँचल की लहरों में,
कविता सी मुस्कान रही,
सावन उसकी देह बना था,
वाणी बनकर गान रही।।
कोई सुध न लोक की उसको,
कोई लाज न मान रही,
बस बूँद-बूँद में प्रेम रचाए,
रस की भाषा जान रही।
भीग गया था तन से पहले,
उसका पावन अंतस भी,
जिसमें पल-पल चित्र रचे थे,
प्रिय के मौन स्पंदन की।।
तन थिरकता झरनों जैसा,
मन उड़े चकोर समान,
भीतर बहती रसधारा सी,
नैनों में कुछ गुप्त बयान।
लाज के पनघट पर जैसे,
चुपके से आ जाए मिलन,
हर बूँद बने प्रिय का संदेश,
हर झोंका उसका चुम्बन।।
उसके अंग-अंग से जैसे,
राग मेघ मल्हार झरे,
एक-एक चितवन बोले,
चलो नयन के द्वार खरे।
वह स्वयं गीत बनकर बहती,
वह स्वयं रागिनी बनी,
सावन के स्वर में गुँथी हुई,
प्रणय सरगम की रजनी।।
तृष्णा थी ना, प्यास कहाँ थी,
फिर भी वह सरिता बनी,
भावों से बंधकर भी वह,
निर्बंध सुंदरी बनी।
ना किसी के बोल सुने उसने,
ना किसी की मान धरे,
बस प्रेम में पल-पल बहती,
बूँद-बूँद में प्रीत भरे।।
कवि- अरविंद शर्मा अजनबी
लखनऊ, उत्तर प्रदेश