26 साल पहले 1999: के कारगिल युद्ध में भारतीय सेना की ऐतिहासिक जीत में दिल्ली के जवानों ने भी अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था। दिल्ली निवासी चार कैप्टन शहीद हुए और एक लांसनायक गंभीर रूप से घायल हुआ, जिसकी कहानी आज भी देश को झकझोर देती है।
कैप्टन हनीफुद्दीन, अमित वर्मा, सुमित रॉय और अनुज नैय्यर ने देश की खातिर अपने प्राण न्यौछावर कर दिए, वहीं लांसनायक सतवीर सिंह आज भी दिव्यांगता पेंशन और पुनर्वास के हक के लिए दर-दर भटक रहे हैं।
कैप्टन हनीफुद्दीन: ऑपरेशन थंडरबोल्ट में वीरगति
पूर्वी दिल्ली के निवासी कैप्टन हनीफुद्दीन, 11वीं राजपूताना राइफल्स में तैनात थे।
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उन्हें पॉइंट 5,590 पर कब्जे के लिए भेजा गया था।
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यह ऑपरेशन “थंडरबोल्ट” के नाम से चलाया गया था।
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18,500 फीट की ऊंचाई पर पाकिस्तानी घुसपैठियों से लड़ते हुए शहीद हो गए।
कैप्टन अमित वर्मा: टाइगर हिल पर हुई शहादत
दिल्ली के पंजाबी बाग निवासी कैप्टन वर्मा, नौ महार यूनिट के अंतर्गत टाइगर हिल क्षेत्र में तैनात थे।
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उन्हें बंकर कब्जा करने की जिम्मेदारी दी गई थी।
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दुश्मन की भारी गोलाबारी में वीरगति को प्राप्त हुए।
कैप्टन अनुज नैय्यर: 23 की उम्र में टाइगर हिल के पश्चिमी छोर पर सर्वोच्च बलिदान
जनकपुरी निवासी कैप्टन अनुज नैय्यर, 17 जाट रेजिमेंट में थे।
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04875 चोटी (पिंपल टू) पर तीन मशीन गन बंकर नष्ट किए।
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23 वर्ष की उम्र में देश के लिए शहीद हो गए।
कैप्टन सुमित रॉय: 21 साल में देश के लिए कुर्बान हुए
राजनगर, पालम निवासी कैप्टन सुमित रॉय, 18 गढ़वाल राइफल्स में तैनात थे।
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युद्ध के दौरान 21 साल की उम्र में शहीद हुए।
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उनकी मां स्वप्ना रॉय आज भी गरीब बच्चों को पढ़ा रही हैं और “सक्षम भारती” एनजीओ के ज़रिए उनके सपनों को जिंदा रखे हुए हैं।
लांसनायक सतवीर सिंह: घायल होकर भी हक के लिए जंग जारी
मुखमेलपुर निवासी लांसनायक सतवीर सिंह, राजपूताना राइफल्स में तैनात थे।
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कारगिल युद्ध में गोलियों से घायल हुए।
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आज भी उन्हें न दिव्यांगता पेंशन, न सरकारी नौकरी, न फ्लैट या ज़मीन मिली।
सतवीर सिंह कहते हैं:
“सरकार ने वादे किए थे – बच्चों को नौकरी, जमीन, पेंशन। पर ये सब सिर्फ कागजों में रह गए हैं।”
26 वर्षों बाद भी याद हैं ये वीरगाथाएं
26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन भारत की सैन्य वीरता और राष्ट्रभक्ति का प्रतीक है।
दिल्ली के इन वीरों की शहादत ने राजधानी को गौरवान्वित किया है, लेकिन सतवीर सिंह जैसे वीरों की अनदेखी इस तंत्र पर सवाल खड़े करती है।
निष्कर्ष:
जहां एक ओर दिल्ली के जांबाजों की शहादत की कहानियां अमर हैं, वहीं दूसरी ओर घायल जवानों के साथ सरकारी उदासीनता चिंता का विषय है।
देश को चाहिए कि वह अपने शहीदों और जांबाजों के बलिदान का न सिर्फ सम्मान करे, बल्कि उनके वादों को भी निभाए।