भाषा का संबंध इतिहास, संस्कृति और परंपराओं से है। भारतीय भाषाओं में अंतर-संवाद की परंपरा बहुत पुरानी है और ऐसा सैकड़ों वर्षों से होता आ रहा है। यह उस दौर में भी हो रहा था, जब वर्तमान समय में प्रचलित भाषाएं अपने बेहद मूल रूप में थीं। श्रीमद्भगवतगीता में समाहित श्रीकृष्ण का संदेश दुनिया के कोने-कोने में केवल अनेक भाषाओं में हुए उसके अनुवाद की बदौलत ही पहुंचा। उन दिनों अंतर-संवाद की भाषा संस्कृत थी, तो अब यह जिम्मेदारी हिंदी की है। जब हमारे पास एक भाषा होती है, तब हमें अंदाजा नहीं होता, कि उसकी ताकत क्या होती है। लेकिन जब भाषा लुप्त हो जाती है और सदियों के बाद किसी के हाथ वो चीजें चढ़ जाती हैं, तो सबकी चिंता होती है कि आखिर इसमें है क्या? ये लिपि कौन सी है, भाषा कौन सी है, सामग्री क्या है, विषय क्या है? आज कहीं पत्थरों पर कुछ लिखा हुआ मिलता है, तो सालों तक पुरातत्व विभाग उस खोज में लगा रहता है कि लिखा क्या गया है?
भारतीय भाषाओं का बढ़ता प्रभाव
आज भारतीय भाषाओं के बीच संवाद को व्यापक रूप से प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। भारतीय भाषाओं में बीच संवाद सैंकड़ों वर्षों से जारी है और इनका विकास भी साथ-साथ ही हुआ है। मसलन बांग्ला और मैथिली में इतनी समानता है कि उनमें अंतर करना मुश्किल है, इसी तरह अवधी और ब्रज भाषा तथा हिंदी और उर्दू में भी ऐसा ही है। हिंदी और उर्दू दैनिकों की भाषा पर हुए एक शोध में देखा गया कि उनमें केवल 23 प्रतिशत शब्द ही अलग थे। हिंदी पत्रकारिता के विकास में मराठी, बांग्ला और दक्षिण भारतीय भाषाओं के योगदान की अनदेखी नहीं की जा सकती। आज पूरे भारत में भारतीय भाषाओं के बढ़ते प्रभाव को देखा जा सकता है। भाषाई पत्रकारिता को हम भारत की आत्मा कह सकते हैं। आज लोग अपनी भाषा के समाचार पत्रों की ओर तेजी से आकर्षित हो रहे हैं। इसलिए भाषाई समाचार पत्रों की प्रसार संख्या तेजी से बढ़ रही है। अलग-अलग बोलियों में अखबार प्रकाशित हो रहे हैं। क्षेत्रीय भाषाओं में रेडियो और टेलीविजन अपने कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं। इतना ही नहीं, जिस स्मार्टफोन के द्वारा हम सोशल मीडिया के संपर्क में रहते हैं, वहां भी भारतीय भाषाओं का विशेष ख्याल रखा जाता है।
आज से कुछ समय पहले तक गांवों की खबरों के लिए चार चार दिन तक इंतजार करना पड़ता था, जबकि आज व्हाट्सएप और ईमेल के द्वारा आसानी से खबरें प्राप्त हो रही हैं। जिलों, कस्बों और मोहल्लों से आज अखबार प्रकाशित हो रहे हैं। ईमेल से अखबारों के पृष्ठ भेजना आसान हो गया है। पहले अंग्रेजी भाषा के अखबारों पर निर्भरता ज्यादा होती थी, जिसके भारतीय पाठक मात्र 15 प्रतिशत हैं। अब जब अलग-अलग बोलियों और भाषाओं में अखबार प्रकाशित हो रहे हैं, तो सूचना सशक्तिकरण बढ़ रहा है। अब विभिन्न दूतावासों के मीडिया प्रकोष्ठ और विदेशी एजेंसियां भी खबरों के लिए क्षेत्रीय एवं भाषाई मीडिया का लाभ ले रहे हैं। दूसरी तरफ हर अखबार अपने ई पेपर के जरिए दूरदराज के पाठकों तक पहुंच रहा है। हम सब जानते हैं कि इंटरनेट की कोई सीमा नहीं है, ऐसे में क्षेत्रीय अखबार विदेशी धरती पर भी उसी दिन पढ़े जा रहे हैं, जिस दिन वे प्रकाशित होते हैं।
भाषा का संकट
आप वर्ष 2040 की कल्पना कीजिए। तब तक हमारा भारत विश्व की एक बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन चुका होगा। गरीबी, कुपोषण, पिछड़ापन काफी हद तक मिट चुके होंगे। देश के लगभग 60 प्रतिशत भाग का शहरीकरण हो चुका होगा। सारा देश डिजिटल जीवन पद्धति को अपना चुका होगा। अब आप सोचिए कि उस भारत के अधिकतर नागरिक अपने जीवन के सारे प्रमुख काम किस भाषा में कर रहे होंगे? पूरे देश में शिक्षा, प्रशासन, व्यापार, शोध, पत्रकारिता जैसे हर बड़े क्षेत्र में किस भाषा का उपयोग हो रहा होगा? वह देश भारत होगा या सिर्फ़ इंडिया? उस इंडिया में संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हमारी 22 बड़ी और 1600 से अधिक छोटी भाषाओं-बोलियों की स्थिति क्या होगी? वर्तमान में जिस तरह अंग्रेजी का चलन तेजी से बढ़ रहा है, क्या उसके बीच हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं को स्थान मिलेगा।
यूनेस्को के पूर्व महानिदेशक कोचिरो मत्सूरा ने कहा था कि, “एक भाषा की मृत्यु उसे बोलने वाले समुदाय की विरासत, परंपराओं और अभिव्यक्तियों का नष्ट हो जाना है।” संसार में लगभग 6000 भाषाओं के होने का अनुमान है। भाषा शास्त्रियों की भविष्यवाणी है कि 21वीं सदी के अंत तक इनमें केवल 200 भाषाएं जीवित बचेंगी। इनमें भारत की सैकड़ों भाषाएं होंगी। यूनेस्को के अनुसार भारत की आदिवासी भाषाओं में से 196 भाषाएं अभी भी गंभीर संकटग्रस्त भाषाएं हैं। संकटग्रस्त भाषाओं की इस वैश्विक सूची में भारत सबसे ऊपर है। यूनेस्को का भाषा एटलस 6000 में से 2500 भाषाओं को संकटग्रस्त बताता है। भारत की अनुमानित 1957 में कम से कम 1416 लिपिहीन मातृभाषाएं हैं। ये सब इस वक्त संकट में हैं।
यूनेस्को के कहने पर विश्व के श्रेष्ठ भाषाविदों ने किसी भी भाषा की जीवंतता और संकटग्रस्तता नापने के लिए 9 कसौटियां निर्धारित की हैं। इनमें पहली कसौटी है, एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी के बीच उस भाषा का अंतरण। दूसरी कसौटियों में प्रमुख हैं ज्ञान विज्ञान के आधुनिक क्षेत्रों में उस भाषा में काम हो रहा है या नहीं। वह भाषा नई तकनीक और आधुनिक माध्यमों को कितना अपना रही है? उस भाषा के विविध रूपों का दस्तावेजीकरण कितना और किस स्तर का है? उस समाज की महत्वपूर्ण संस्थाओं की उस भाषा के बारे में नीतियां और रुख़ कैसे हैं? इसमें अंतिम लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कसौटी है…उस भाषा समुदाय का अपनी भाषा के प्रति रुख़ क्या है, भाव क्या है? इनमें से किसी भी कसौटी पर किसी भी भारतीय भाषा को तोल लीजिए, तुरंत समझ में आ जाएगा कि भविष्य के संकेत संकट की और इशारा करते हैं या विकास की और। भारतीय चरित्र, इजराइली चरित्र जैसा नहीं है, जिसने 2000 साल से मृत पड़ी हिब्रू को आज वैज्ञानिक शोध, नवाचार और आधुनिक ज्ञान निर्माण की श्रेष्ठतम वैश्विक भाषाओं में एक बना दिया है। जिसके बल पर 40 लाख की जनसंख्या वाला इजरायल एक दर्जन से ज्यादा विज्ञान के नोबेल पुरस्कार जीत चुका है। सारे इस्लामी देशों की शत्रुता के बावजूद अपनी पूरी अस्मिता, धमक और शक्ति के साथ अजेय बना विश्व पटल पर विराजमान है।
अंतर-संवाद और अनुवाद
भाषा मनुष्य की श्रेष्ठतम संपदा है। सारी मानवीय सभ्यताएं भाषा के माध्यम से ही विकसित हुई हैं। याद रखिए…आदिम समाज तो हो सकते हैं, लेकिन आदिम भाषाएं नहीं हो सकतीं। शहीद भगत सिंह ने 15 वर्ष की उम्र में ये लिखा था कि, “पंजाब में पंजाबी भाषा के बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता।” गांधी जी ने 1938 में ही स्पष्ट कहा था कि, “क्षेत्रीय भाषाओं को उन का आधिकारिक स्थान देते हुए शिक्षा का माध्यम हर अवस्था में तुरंत बदला जाना चाहिए।” महात्मा गांधी का ये भी मानना था कि अंग्रेज़ी भाषा के मोह से निजात पाना स्वाधीनता के सब से ज़रूरी उद्देश्यों में से एक है। भाषाओं का राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण में योगदान होता है। शब्दों को हमने ब्रह्म माना है। महात्मा गांधी ने अंग्रेजी में ‘हरिजन’ प्रकाशित किया, लेकिन उसे जन-जन तक पहुंचाने के लिए उन्होंने उसे गुजराती और हिंदी में भी स्थापित किया। भारतीय भाषाओं के बीच अंतर-संवाद को हमें अगर समझना है तो गुजराती में 70 पुस्तकों की रचना करने वाले फादर वॉलेस और गुजरात में कई विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की स्थापना करने वाले सयाजीराव गायकवाड़ के बारे में पढ़ना चाहिए। उत्तर-दक्षिण भारत की भाषाओं में व्यापक अंतर होने के बावजूद उनमें अंतर-संवाद और अनुवाद होता आया है।
भाषा ही कराती है मेल-मिलाप
भारत एक छोटे यूरोप की तरह है। यहां विविध भाषाएं हैं और भाषा ही मेल-मिलाप कराती हैं। भाषाई विविधता और बहुभाषी समाज आज की आवश्यकता है और समस्त भाषाओं के लोगों ने ही विश्व में अपनी उपलब्धियों के पदचिन्ह छोड़े हैं। आज हम एक बहुभाषी दुनिया में रहते हैं। दुनियाभर में लोग बेहतर अवसरों की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान में प्रवास करते हैं। जहां उनकी भाषाएं और संस्कृति, नए क्षेत्र की भाषा और संस्कृति से एकदम अलग होती है। इसलिए उन्हें एक ऐसी भाषा की आवश्यकता होती है, जो दोनों संस्कृतियों को आपस में एकीकृत कर सके, जिसके लिए उन प्रवासियों को निश्चित तौर पर एक से अधिक भाषाओं का ज्ञान होना आवश्यक है। पश्चिम बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में भी एक शिक्षित व्यक्ति को कम से कम तीन भाषा का ज्ञान होता है। यहां के लोगों को अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त संपर्क भाषा के रूप में हिंदी का ज्ञान होता है। इसके साथ ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क साधने के लिए अंग्रेजी भाषा को भी ये लोग सीख लेते हैं।
स्वयं से संवाद
भारत का प्रत्येक व्यक्ति मूलतः बहुभाषी है। भारत जैसे बहुभाषी देश में हमारा किसी एक भाषा के सहारे काम चल ही नहीं सकता। हमें अपनी बात बाकी लोगों तक पहुंचाने के लिए और उनके साथ संवाद करने के लिए एक भाषा से दूसरे भाषा के बीच आवाजाही करनी ही पड़ती है। जैसे हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं का मिश्रित रूप है ‘हिंदुस्तानी जुबान’। हिंदुस्तानी जुबान में होने वाले संवाद की मिठास और संप्रेषण की सहजता देखने लायक है। भारत सदैव वसुधैव कुटुम्बकम की बात करता आया है और सभी भाषाओं को साथ लेकर चलने के पीछे भी यही भावना है। जहां भाषा खत्म होती है, वहां संस्कृति भी उसके साथ दम तोड़ देती है। हमें सभी भाषाओं को महत्व देना चाहिए, उन्हें समझना चाहिए और उनके संपर्क का माध्यम हिंदी है, इसे स्वीकार करना चाहिए। याद रखिए, भाषा के माध्यम से हम केवल दुनिया से ही नहीं, बल्कि स्वयं से भी संवाद करते हैं।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में प्रोफेसर हैं।)